Saturday 26 November 2011

'तुम्हारी कविता .. अनुपमा'


'तुम्हारी कविता .. अनुपमा' Fri 25, 2011



सुंदर शब्दोँ से
सजी आती
तुम्हारी कविता
कभी मुस्कुराती
खिलखिलाती
तुम्हारी कविता ..


तमस की रातोँ मेँ
दीए की रौशनी है
सवेरोँ को
उजियाला
बनाती
तुम्हारी कविता ..


उदास चेहरोँ
को गुलज़ार कर दे
गुमसुम लबोँ
पर गीत
सजा देती
तुम्हारी कविता ..


गंगा की लहरोँ सी
पावन कर दे
हरदम
जीवन को प्रेरित
कर जाती
तुम्हारी कविता ..

Friday 18 November 2011

'कुम्हार' का चाक' by Chandrasekhar Nair on Sunday, 13 November 2011 at 07:57



कुम्हार का चाक



बचपन मेँ

विस्मित एक टक

देखता था

कुम्हार के चाक को



एक इशारा, और

तेजी से घूमते चक्र को,

चाक धुन मे निमग्न

कुम्हार के वो

दक्ष हाथ



गढ़ देते

खूबसूरत पात्र

फिर भर देते

सतरंगी गुण ..



वो चक्र घूमता है

आज भी

पर बिना किसी

जोर के

उसकी चाक धुन अब

ध्वनि भी नहीँ करती ..



फिर भी

अगर न घूमता ये चाक

तो ये पात्र -

सुपात्र या कुपात्र,

क्या गढ़े जाते ?



आज भी विस्मय मे

सोचता हूँ

कि ये कालचक्र

न घूमता तो

कहाँ होते हम ?



न होती कोई भूमिका

न कोई पात्र

न रंग

और न जाने क्या करता

वो 'कुम्हार' ..

'अनुभूति' .. by Chandrasekhar Nair on Monday, 7 November 2011 at 08:45




अनुभूति ..



निश्चित रूप से

शब्द नहीं व्यक्त कर सकते

मन की हर अनुभूति को ..


मगर फिर भी हम

शब्दों की सीढ़ी पर

उन सूने प्रहरों में अक्सर

घूम आते हैं ..


खो जाते हैं कई बार,

भ्रम मे भी पड़ जाते हैं

मन के उन पन्नों पर

स्मृति के भीति-चित्रों के

संगीत स्वर-मद्धम

बजने लगते हैं जब ..


लौट लौट आते हैं

वो हमारे अपने

उनके साथ

वे स्वर्णिम क्षण -

किताबों की जिल्द पर

धूल छटने लगती है


जैसे दालान मे

दिवाकर की रश्मि

छिड़क रही है

अनुपम अल्पनायें ..


कभी कभी

ये मन कहता है -


ये शब्द !

नही कर सकते

व्यक्त

हर अनुभूति! मन की ..

'गीली मिटटी' .. by Chandrasekhar Nair on Thursday, 3 November 2011 at 03:19



मिट्टी इधर भी गीली है मन की

एक मुद्दत से ..


इस गीली मिट्टी की सतह पर

कुछ छिड़काव रोज़ करते हैँ

नमी बनी रहे, कभी यह सूखने न पाये

दरारें आने न पायें ..


कुछ बीज दिल के पन्नोँ मेँ हुआ करते थे

बचा के रखे थे,

के बोयेँगे वक्त मिलने पर -

मगर उड़ गये जो वक्त के तेज़ थपेड़ोँ के साथ ..


अब इंतज़ार के सहारे जिए जाते हैँ

मगर हवाओँ पे भरोसा कायम है पूरा

कि कहीँ से उड़ा लायेंगी फिर

इक बीज नन्हा सा, उम्मीदोँ का ..


छुपाये हुए वक्त की हरियाली अपने अंदर,

बारिश भी मेहरबाँ होगी

कि कुछ फूल खिलेँगे इस पर

और आयेँगे परिन्दे भी ..


गायेँगे मीठी बानी मेँ गीत

कि माहौल ख़ुशनुमा हो जायेगा

यकीन है हमें अपनी

इस गीली मिटटी पर ..


इसलिए -

मिट्टी इधर भी गीली है मन की

एक मुद्दत से ..