एक कप चाय और मिलेगी क्या?
एक कप चाय और मिलेगी क्या?
सुनते ही तुम्हारा वो बरामदे से
कपड़े धोते हुए झाग भरे हाथ लिये
खीजकर कहना-
सुबह से कितनी बार दे चुके, अभी कितने कप और पियोगे?
देखो धुले कपड़ोँ का टब भर चुका
जरा छत पर फैला देते तो कुछ और धुल डालती
टंकी का पानी भी खत्म होने को है और नहाना भी बाकी है अभी ..
मगर तुम्हेँ इससे क्या, तुम्हारा तो इतवार है, पूरे दिन चलेगा ..
अरे कभी तो सुध ले लिया करो घर की
देखो बैठक मेँ जाले साफ किये कितने दिन हुए ..
अधमने से कुछ कपड़े फैलाकर
जाले बैठक के उतार जब भी लौटा,
तो चाय की प्याली को इंतज़ार करते पाया तिपाई पर अखबारोँ और पाँकेट डाइरियोँ के बीच .. वाह !
इस बीच बच्चोँ की धमाल, उनका नाश्ता, तेज़ कम होते टीवी की आवाज़,
कभी कुछ मित्र, पड़ोसी
सभी कुछ तो हैडल करती रही अकेली,
साथ मेँ मुझको बखूबी..
दोपहर बाद की झपकी, जब भी खुली आंखेँ
पाया सूखे साफ कपड़ो को तह करते
जैसे एक जीवन सहेज लिया फिर आज तुमने ..
इतवार, अमुमन कुछ सैकड़ोँ जो हमने साथ गुजारे
इन बीस सालोँ मेँ,
याद हैँ सभी मुझे, जैसे आज के अखबार के पन्ने
मुख्य पृष्ठ से लेकर वो चौबीस,
चार साप्ताहिकी और आठ वर्गीकृत विज्ञापनो वाले
कुछ श्वेत श्याम और रंगीन भी..
फिर इंतज़ार है रविवार के अगले संस्करण का,
और साथ मेँ एक कप चाय !!
17 March,2011
प्रकाश !
पराजय स्वीकार नहीँ करता मेरा मन.
मरुथल की मरीचिकाओँ सा मेरा दंभ.
कितना क्षीण पुरातन इसका जर्जर स्तम्भ.
फिर भी लहराये कीर्ति का परचम !
गिरा, विदीर्ण हुआ अनेक अवसरोँ पर, उठा भी
अनजाने घातोँ से बचता,
करता नित नूतन प्रयास.
पराजय के द्वार तक पहुँचा फिर भी
हूँ साधे जय का विश्वास.
ना कोई भरम अब,
पा लिया है मैने 'आशा का प्रकाश' ..
- शेखर
27 February 2011
मन से हूँक उठी एक रचना पढ़कर..
जिस किसी को केन्द्र मेँ रखकर लिखी जाती हैँ,
क्या उसका पक्ष सामने आ पाता है कभी?
उत्सुकता पीर को क्या प्रोत्साहित नहीँ करती?
तथाकथित से भी कभी
पूछ ले कोई,
कि भाई तुम्हारा प्वॉइन्ट ऑफ व्यू क्या है,
कुछ तुम्हेँ भी कहना है?
थोड़ी छूट दी जाती है तुम्हेँ,
कहो- क्या कारगुजारियां रहीँ तुम्हारी?
जो लेखनी को रचनी पड़ी पंक्तियां करुणामयी ..!
प्रतीक्षा मेँ है खड़ा केन्द्र का बिन्दु पात्र,
कि ईश्वर कभी अवसर दे,
कोई पूछे और समझे,
कि आखिर मामला क्या है?
यह क्योँ यहाँ विक्षिप्त सा पड़ा है?
कोई बता पाये तो भला, वरना-
समय ढक लेगा तुम्हेँ अपने आवरण मेँ,
रचना तो ऐतिहासिक हो जायेगी
वाह-वाह की मोटी परत तुम्हारी काया पे जम जायेगी..
न कोई पूछेगा न दोहराये जाओगे
भाग्य से यही पारितोषक पा जाओगे..
रचना के स्तम्भ के नीचे
फूलोँ की महक के साथ
दफनाये जाओगे !
- शेखर