Friday 13 January 2012

आज संध्या से पहले एक सुखद परिवर्तन हो !!

Makara Jyothi at Sabri Mala Hills

मकर-संक्रांति, उत्तरायण व मगरविल्लकू (केरल) के पावन पर्व पर अनुपमा जी की यह पंक्तियाँ अति सुन्दर लगीं!
आप सभी तो इस लोक पर्व की बहुत शुभकामनायें ..

आज संध्या से पहले एक सुखद परिवर्तन हो !!
by Anupama Pathak on Saturday, 24 July 2010 at 14:28


ज्ञान चक्षु से दृश्य का अवलोकन हो !

आशा का दीपक जलता रहे ...

यही ह्रदय के भावों का प्रयोजन हो !!

ये विस्मरण का दौर है ...

हम भूल रहे है अपनी संस्कृतियों को ....

नवीनता के साथ साथ

गौरवपूर्ण पुरातन मूल्यों का भी संवर्धन हो !!

आने वाली सन्ततियाँ इस युग को भी नमन करे

इस युग के हम कर्णधारों द्वारा

ऐसा भी कुछ समायोजन हो !!

जीवन भर लगी रहेगी

दिवा-रात्रि की निरंतर आवाजाही ..

तन्द्रा भंग हो

कुछ लोग तो जागें

आज संध्या से पहले एक सुखद परिवर्तन हो !!

ज्ञान चक्षु से दृश्य का अवलोकन हो !

आशा का दीपक जलता रहे

यही ह्रदय के भावों का प्रयोजन हो !!




10:00 am,stockholm

anupama


Final steps at Sabri Mala shrine..
swami Ayyappa vigraham ..

Wednesday 11 January 2012

जो शेष है ... (सुप्रभात ) .. अपर्णा मनोज


जो शेष है ... (सुप्रभात )
by Aparna Manoj on Thursday, 13 January 2011


अभी भी शेष है

बचा रखा है यहीं अपने आँगन में

एक कलरव झरने का

जिसकी बूंदों को

प्रभाती चिड़िया चोंच में भर

छोड़ आती है

सुनहरी रेत पर

और एक सहज हंसी गेहूं की

लहलहा उठती है चैत्र के अधरों पर

किन्हीं पगलाई जड़ों में

झींगुर दबे पाँव

तोड़ते हैं सन्नाटा

और चांदी लिखते हैं जुगनू

रात के पन्ने पर .

अभी भी शेष है

धरती की निस्संग आँखों में

सागर का नमक

जिनके स्फटिक गालों पर

फूट जाती है लहरों की हंसी

और पर्वत गोल आँखों से देखता है

सुखों के पाश -बंध..

हिंसा के जंगलों में

अभी भी कुलांच भरते हैं कस्तूरी हिरण

ये सब शेष है

तुम्हारी भीड़ में

प्रकारांतर से सुनती हूँ

श्रद्धा और मनु

बुन रहे हैं किसी निविड़ में संसार

सृष्टि के झंकृत क्षण

ईर्ष्या ,वैमनस्य से परे

चिंता की खोह के बाहर

सूरज पलने लगा है गोद में ..

जानती हूँ

सभी उत्कोचों के रहते भी

शेष रहता है

कोमल प्रेम

जितना पुरातन ,उतना नवीन .



अपर्णा -


Photo: Gill & Terry Bass

Tuesday 10 January 2012

ब्रह्म मुहूर्त का प्रहर .. शोभा मिश्र दीदी



October 21, 2011
शोभा मिश्र दीदी कि एक सुन्दर रचना जो ले जाती है ग्रामीण परिवेश में ढलती एक सुहानी सुबह की ओर ..

ब्रह्म मुहूर्त का प्रहर
पास 'पोखर' से आती
'भुजैटें' की आवाज़
चौखट के अन्दर से आती
'पायल' की झुन झुन
भक्तिमय मन्त्रों के
उच्चारण की गुन-गुन
'कुचिया ' से बुहार की आवाज़
चूल्हे से आती लेप की सुगंध
हल्का उजाला क्षितिज पर
अम्बर के माथे नहीं सजा
अभी नूरानी सूरज
आँगन में एक सखी के
माथे पे चमकती "टिकुली "
मंद मंद मुस्काती
इक माँ अन्नपूर्णा
'अदहन' धरने लगी चूल्हे पर
संग संग उनकी मधुर आवाज़
मैं सुनती रही गुन-गुन
उफ्फ़ ! ये कैसी कर्कश
गाड़ियों के हार्न की आवाज़ ?
मैं घबरा के उठ बैठी , जिसे सुन
महानगरों के शोर में
गाँव के सुन्दर ख्वाब रही थी बुन ......

~ ~ शोभा ~ ~


'भुजैटें' = पंक्षी
'कूची '= झाड़ू
'टिकुली' = बिंदी

Monday 9 January 2012

कन्यादान .. (अपर्णा दीदी)


अपर्णा दीदी की कलम से निकली यह रचना कुछ ऐसी छाप छोड़ गयी थी उस समय, जब पढ़ी थी, आज मन हो आया दोबारा पढने और संजोने का ..


कन्यादान
by Aparna Bhatnagar on Saturday, 17 July 2010 at 08:24


माँ -याद है कन्यादान !
शेष बचपन तुझे सौंप
मेरा चले जाना...
अल्पनाएँ
मेरे आंसू से नम
आज भी ज्यों की त्यों
तेरी देहर मढ़ी हैं ..
स्मृतियाँ तुलसी की
तेरे आँगन लगी हैं....
नहीं है तो
बस मेरा वहां होना ....!!
गठजोड़े की कच्ची नींव
सौंप तेरा विदा करना
माँ ,याद है मेरा यूँ चले जाना ......
फिर मेहनत और सब्र की दीवारें
एक-एक ईंट
घर का चिनना....
तूने भी तो यही किया था ...
तेरे अतीत से सीख आई थी
दीवारें पुख्ता करना .
अपनी सुर्ख मेहँदी
दीपदान में रखकर
रोज़ उसे लाल जलते देखना ...
कुछ सपने आलों में तह
करीने -से रख दिए हैं
यथावत ...!
खिड़कियों से आते प्रवाह
मौन संवादों की कड़ी ...
माँ ,मैंने इस प्रवाह में बहना सीख लिया है ...
तू भी तो बहती थी .....
छोटे-छोटे सुख -दुःख
उनकी अर्गला (चिटखनी )
बखूबी चढ़ाना ..
विश्वास की चूलों पर टिका दरवाज़ा
जानती हूँ बिना आहट के बंद करना
उनमें रहना , जीना
माँ , तू भी तो रहती थी यूँ सुरक्षित ....
घर के बाहर कुछ रंगोलियाँ पोर दीं हैं
स्वागत है ...
माँ , तेरी सीख के हर मेहमान का...
अभी जीना बाकी है ....
कन्यादान का यज्ञ
कुछ और होम करना है क्या ?
मैं तैयार हूँ .....


अपर्णा

Friday 6 January 2012

एक नया जन्म और चाहिए!




जो किताबो मेँ पढ़ा
वह रह गया पीछे
समय ने जो गढ़ा
जिन्दगी चली है वैसे
सूने प्रहरोँ मेँ
रहा अक्सर खो जाने
का भ्रम
बिखर गए सपनोँ का
ये कैसा अपनापन
समय के दशन से छला
जीवन नमन मेँ रहा सदा
संदर्भोँ के दर्प से टूटता रहा !

अब अनगिन प्रश्नोँ
का हल चाहिए
एक नया जन्म और चाहिए ..

सोच मेँ नम्रता
कार्य मेँ विशुद्धता
निर्णयोँ मेँ दृढ़ता
आचरण मेँ परमार्थता
क्यूँ न आई जीवन मेँ
सरलता सौम्यता,
भाग्य को निहारते
प्रतीक्षारत क्यूँ रहे?
अंधकार का हो शमन !

नव प्रभा मेँ
ईष्ट की ज्योति चाहिए
एक नया जन्म और चाहिए ..






Photo: By Kimmo Eväluoto@Picasa web albums