Monday 11 June 2012



शब्दोँ की अठखेलियां..

शब्दोँ की अठखेलियां अक्सर करती हैँ मुझसे 
बेबाक बतकही.
कभी मेरी चैतन्यता पर करती प्रहार
छीन कर मुझसे शब्द
चिढ़ाती हैँ मुझे
मेरी हर सोच की अस्मिता पर पूँछती सवाल.. 
हर चयन पर हुआ नादानियोँ का हिसाब.
खुली आंखोँ से सपने देखता रहता मैँ
पर शब्दोँ का खेल
सजग करता
मुझे.
रास्ते के हर मोड़ पर...
दे जाता एक
नया शब्द..
एक नई परिभाषा !






Monday 30 April 2012

रविवार



एक कप चाय और मिलेगी क्या?

एक कप चाय और मिलेगी क्या?
सुनते ही तुम्हारा वो बरामदे से
कपड़े धोते हुए झाग भरे हाथ लिये
खीजकर कहना-
सुबह से कितनी बार दे चुके, अभी कितने कप और पियोगे?
देखो धुले कपड़ोँ का टब भर चुका
जरा छत पर फैला देते तो कुछ और धुल डालती
टंकी का पानी भी खत्म होने को है और नहाना भी बाकी है अभी ..
मगर तुम्हेँ इससे क्या, तुम्हारा तो इतवार है, पूरे दिन चलेगा ..
अरे कभी तो सुध ले लिया करो घर की
देखो बैठक मेँ जाले साफ किये कितने दिन हुए ..
अधमने से कुछ कपड़े फैलाकर
जाले बैठक के उतार जब भी लौटा,
तो चाय की प्याली को इंतज़ार करते पाया तिपाई पर अखबारोँ और पाँकेट डाइरियोँ के बीच .. वाह !
इस बीच बच्चोँ की धमाल, उनका नाश्ता, तेज़ कम होते टीवी की आवाज़,
कभी कुछ मित्र, पड़ोसी
सभी कुछ तो हैडल करती रही अकेली,
साथ मेँ मुझको बखूबी..
दोपहर बाद की झपकी, जब भी खुली आंखेँ
पाया सूखे साफ कपड़ो को तह करते
जैसे एक जीवन सहेज लिया फिर आज तुमने ..
इतवार, अमुमन कुछ सैकड़ोँ जो हमने साथ गुजारे
इन बीस सालोँ मेँ,
याद हैँ सभी मुझे, जैसे आज के अखबार के पन्ने
मुख्य पृष्ठ से लेकर वो चौबीस,
चार साप्ताहिकी और आठ वर्गीकृत विज्ञापनो वाले
कुछ श्वेत श्याम और रंगीन भी..
फिर इंतज़ार है रविवार के अगले संस्करण का,
और साथ मेँ एक कप चाय !!




Friday 6 April 2012

प्रकाश ! - (शेखर)


17 March,2011


प्रकाश !


पराजय स्वीकार नहीँ करता मेरा मन.

मरुथल की मरीचिकाओँ सा मेरा दंभ.

कितना क्षीण पुरातन इसका जर्जर स्तम्भ.

फिर भी लहराये कीर्ति का परचम !


गिरा, विदीर्ण हुआ अनेक अवसरोँ पर, उठा भी

अनजाने घातोँ से बचता,

करता नित नूतन प्रयास.

पराजय के द्वार तक पहुँचा फिर भी

हूँ साधे जय का विश्वास.


ना कोई भरम अब,

पा लिया है मैने 'आशा का प्रकाश' ..


- शेखर

'केन्द्र का बिन्दु' - (शेखर)


27 February 2011


मन से हूँक उठी एक रचना पढ़कर..

जिस किसी को केन्द्र मेँ रखकर लिखी जाती हैँ,

क्या उसका पक्ष सामने आ पाता है कभी?

उत्सुकता पीर को क्या प्रोत्साहित नहीँ करती?

तथाकथित से भी कभी

पूछ ले कोई,

कि भाई तुम्हारा प्वॉइन्ट ऑफ व्यू क्या है,

कुछ तुम्हेँ भी कहना है?

थोड़ी छूट दी जाती है तुम्हेँ,

कहो- क्या कारगुजारियां रहीँ तुम्हारी?

जो लेखनी को रचनी पड़ी पंक्तियां करुणामयी ..!



प्रतीक्षा मेँ है खड़ा केन्द्र का बिन्दु पात्र,

कि ईश्वर कभी अवसर दे,

कोई पूछे और समझे,

कि आखिर मामला क्या है?

यह क्योँ यहाँ विक्षिप्त सा पड़ा है?

कोई बता पाये तो भला, वरना-

समय ढक लेगा तुम्हेँ अपने आवरण मेँ,

रचना तो ऐतिहासिक हो जायेगी

वाह-वाह की मोटी परत तुम्हारी काया पे जम जायेगी..

न कोई पूछेगा न दोहराये जाओगे

भाग्य से यही पारितोषक पा जाओगे..

रचना के स्तम्भ के नीचे

फूलोँ की महक के साथ

दफनाये जाओगे !


- शेखर

Friday 3 February 2012

थोड़ी फुर्सत है आज by Vandna Tripathi


आइये पढ़ें वंदना त्रिपाठी बहन की एक सुन्दर रचना भावाभिव्यक्ति परिपूर्ण ..




थोड़ी फुर्सत है आज,
चलो कर लूँ खुद से मुलाक़ात
दिन बीते
किये खुद से बात,
झाँकूँ अपने भीतर
और,
देखूं कितनी महक
बची है बचपन की,
कितनी
मादकता शेष है
वासंती यौवन की,
वाणी का शहद
बचा है क्या..?

बचपन की निश्छलता ..
चंचलता पकी तो नही,
विचारोँ की अन्तस्सलिता
सूखी तो नहीँ,
चुकी तो नहीँ
सम्बन्धो की ऊष्मा?
दो घड़ी रुक कर झांका
तो भीतर थी अनुभूतियां,
निश्छलता .. चंचलता ..
वासंती सुधियाँ भी,
धरी थी अनछुई सी,
थी सम्बन्धोँ की आंच भी
सब कुछ तो था,
जो सौँपा उस विराट ने ..!

बस जम गई थी
काई स्वार्थ की,
अहंकार.. दुनियादारी
की धूल ..
तो क्योँ न साफ करुँ
वो काई और
झाड़ दूँ धूल
नया सा कर लूँ
अपना अंतरतम ..

बतिया लूँ कुछ फूलो से-
चहचहाती चिड़ियों सी,
झूमते पेड़ों से
पा लूँ एक उछाह..!
फलो से वाणी की मिठास ..
जाऊँ नदिया निर्झर तीर
भर लूँ जीवन में
लय स्वर व ताल
तितली के पंखों से
लूँ रंग, बच्चो से उनकी
निश्छलता ..

सीख लूँ जड़ो से जुड़ना,
अपने दरवाजे के बूढ़े बरगद से ..
फिर सुन अपनी सांसो
का नव-संगीत
महका जाऊँ जग को अपनी
अंतरात्मा की मदिर सुवास से ..

हाँ, थोड़ी फुरसत है, आज ..

- वंदना

Friday 13 January 2012

आज संध्या से पहले एक सुखद परिवर्तन हो !!

Makara Jyothi at Sabri Mala Hills

मकर-संक्रांति, उत्तरायण व मगरविल्लकू (केरल) के पावन पर्व पर अनुपमा जी की यह पंक्तियाँ अति सुन्दर लगीं!
आप सभी तो इस लोक पर्व की बहुत शुभकामनायें ..

आज संध्या से पहले एक सुखद परिवर्तन हो !!
by Anupama Pathak on Saturday, 24 July 2010 at 14:28


ज्ञान चक्षु से दृश्य का अवलोकन हो !

आशा का दीपक जलता रहे ...

यही ह्रदय के भावों का प्रयोजन हो !!

ये विस्मरण का दौर है ...

हम भूल रहे है अपनी संस्कृतियों को ....

नवीनता के साथ साथ

गौरवपूर्ण पुरातन मूल्यों का भी संवर्धन हो !!

आने वाली सन्ततियाँ इस युग को भी नमन करे

इस युग के हम कर्णधारों द्वारा

ऐसा भी कुछ समायोजन हो !!

जीवन भर लगी रहेगी

दिवा-रात्रि की निरंतर आवाजाही ..

तन्द्रा भंग हो

कुछ लोग तो जागें

आज संध्या से पहले एक सुखद परिवर्तन हो !!

ज्ञान चक्षु से दृश्य का अवलोकन हो !

आशा का दीपक जलता रहे

यही ह्रदय के भावों का प्रयोजन हो !!




10:00 am,stockholm

anupama


Final steps at Sabri Mala shrine..
swami Ayyappa vigraham ..

Wednesday 11 January 2012

जो शेष है ... (सुप्रभात ) .. अपर्णा मनोज


जो शेष है ... (सुप्रभात )
by Aparna Manoj on Thursday, 13 January 2011


अभी भी शेष है

बचा रखा है यहीं अपने आँगन में

एक कलरव झरने का

जिसकी बूंदों को

प्रभाती चिड़िया चोंच में भर

छोड़ आती है

सुनहरी रेत पर

और एक सहज हंसी गेहूं की

लहलहा उठती है चैत्र के अधरों पर

किन्हीं पगलाई जड़ों में

झींगुर दबे पाँव

तोड़ते हैं सन्नाटा

और चांदी लिखते हैं जुगनू

रात के पन्ने पर .

अभी भी शेष है

धरती की निस्संग आँखों में

सागर का नमक

जिनके स्फटिक गालों पर

फूट जाती है लहरों की हंसी

और पर्वत गोल आँखों से देखता है

सुखों के पाश -बंध..

हिंसा के जंगलों में

अभी भी कुलांच भरते हैं कस्तूरी हिरण

ये सब शेष है

तुम्हारी भीड़ में

प्रकारांतर से सुनती हूँ

श्रद्धा और मनु

बुन रहे हैं किसी निविड़ में संसार

सृष्टि के झंकृत क्षण

ईर्ष्या ,वैमनस्य से परे

चिंता की खोह के बाहर

सूरज पलने लगा है गोद में ..

जानती हूँ

सभी उत्कोचों के रहते भी

शेष रहता है

कोमल प्रेम

जितना पुरातन ,उतना नवीन .



अपर्णा -


Photo: Gill & Terry Bass

Tuesday 10 January 2012

ब्रह्म मुहूर्त का प्रहर .. शोभा मिश्र दीदी



October 21, 2011
शोभा मिश्र दीदी कि एक सुन्दर रचना जो ले जाती है ग्रामीण परिवेश में ढलती एक सुहानी सुबह की ओर ..

ब्रह्म मुहूर्त का प्रहर
पास 'पोखर' से आती
'भुजैटें' की आवाज़
चौखट के अन्दर से आती
'पायल' की झुन झुन
भक्तिमय मन्त्रों के
उच्चारण की गुन-गुन
'कुचिया ' से बुहार की आवाज़
चूल्हे से आती लेप की सुगंध
हल्का उजाला क्षितिज पर
अम्बर के माथे नहीं सजा
अभी नूरानी सूरज
आँगन में एक सखी के
माथे पे चमकती "टिकुली "
मंद मंद मुस्काती
इक माँ अन्नपूर्णा
'अदहन' धरने लगी चूल्हे पर
संग संग उनकी मधुर आवाज़
मैं सुनती रही गुन-गुन
उफ्फ़ ! ये कैसी कर्कश
गाड़ियों के हार्न की आवाज़ ?
मैं घबरा के उठ बैठी , जिसे सुन
महानगरों के शोर में
गाँव के सुन्दर ख्वाब रही थी बुन ......

~ ~ शोभा ~ ~


'भुजैटें' = पंक्षी
'कूची '= झाड़ू
'टिकुली' = बिंदी

Monday 9 January 2012

कन्यादान .. (अपर्णा दीदी)


अपर्णा दीदी की कलम से निकली यह रचना कुछ ऐसी छाप छोड़ गयी थी उस समय, जब पढ़ी थी, आज मन हो आया दोबारा पढने और संजोने का ..


कन्यादान
by Aparna Bhatnagar on Saturday, 17 July 2010 at 08:24


माँ -याद है कन्यादान !
शेष बचपन तुझे सौंप
मेरा चले जाना...
अल्पनाएँ
मेरे आंसू से नम
आज भी ज्यों की त्यों
तेरी देहर मढ़ी हैं ..
स्मृतियाँ तुलसी की
तेरे आँगन लगी हैं....
नहीं है तो
बस मेरा वहां होना ....!!
गठजोड़े की कच्ची नींव
सौंप तेरा विदा करना
माँ ,याद है मेरा यूँ चले जाना ......
फिर मेहनत और सब्र की दीवारें
एक-एक ईंट
घर का चिनना....
तूने भी तो यही किया था ...
तेरे अतीत से सीख आई थी
दीवारें पुख्ता करना .
अपनी सुर्ख मेहँदी
दीपदान में रखकर
रोज़ उसे लाल जलते देखना ...
कुछ सपने आलों में तह
करीने -से रख दिए हैं
यथावत ...!
खिड़कियों से आते प्रवाह
मौन संवादों की कड़ी ...
माँ ,मैंने इस प्रवाह में बहना सीख लिया है ...
तू भी तो बहती थी .....
छोटे-छोटे सुख -दुःख
उनकी अर्गला (चिटखनी )
बखूबी चढ़ाना ..
विश्वास की चूलों पर टिका दरवाज़ा
जानती हूँ बिना आहट के बंद करना
उनमें रहना , जीना
माँ , तू भी तो रहती थी यूँ सुरक्षित ....
घर के बाहर कुछ रंगोलियाँ पोर दीं हैं
स्वागत है ...
माँ , तेरी सीख के हर मेहमान का...
अभी जीना बाकी है ....
कन्यादान का यज्ञ
कुछ और होम करना है क्या ?
मैं तैयार हूँ .....


अपर्णा

Friday 6 January 2012

एक नया जन्म और चाहिए!




जो किताबो मेँ पढ़ा
वह रह गया पीछे
समय ने जो गढ़ा
जिन्दगी चली है वैसे
सूने प्रहरोँ मेँ
रहा अक्सर खो जाने
का भ्रम
बिखर गए सपनोँ का
ये कैसा अपनापन
समय के दशन से छला
जीवन नमन मेँ रहा सदा
संदर्भोँ के दर्प से टूटता रहा !

अब अनगिन प्रश्नोँ
का हल चाहिए
एक नया जन्म और चाहिए ..

सोच मेँ नम्रता
कार्य मेँ विशुद्धता
निर्णयोँ मेँ दृढ़ता
आचरण मेँ परमार्थता
क्यूँ न आई जीवन मेँ
सरलता सौम्यता,
भाग्य को निहारते
प्रतीक्षारत क्यूँ रहे?
अंधकार का हो शमन !

नव प्रभा मेँ
ईष्ट की ज्योति चाहिए
एक नया जन्म और चाहिए ..






Photo: By Kimmo Eväluoto@Picasa web albums