यह हमारी अपर्णा दीदी जी हैं, जिनको हम दीजी के नाम से संबोधित करते हैं ..
चुप-चाप से अक्सर ऐसा लिख जाती हैं कि, कुछ छाप, ऐसी छाप जाती हैं कि, उसे एक जीवन भर का स्मरण दे जाती हैं मेरी दीजी .. अनंत शुभकामनायें ! यहाँ सुनिए मेरी दीजी को:
" महल में बनी बावड़ी के किनारे बैठी,
पानी पर जमी काई में गुजरी पुश्तों की तसवीरें देख रही थी,
नहीं, शायद समय की परछाईयों में तैरते हुए चेहरों में खुदको ढूँढ रही थी,
और प्रयासरत थी कुछ अनकहा सुनने में।" ..
" कुछ तो था उन दीवारों में जो गा उठीं मेरे एक स्पर्श से,
और खींच ले गयीं मुझे, अपने वैभव काल में,
पत्थरों पर तराशी हर वो कहानी, हर लता पर खिली कली, हर वो बारीक आकृति,
मानो जीवंत हो सुगन्धित हो गयीं मेरी उँगलियों तले। "
दरीचों में फडफडाते कबूतर पलट जाते थे पन्ने इतिहास के,
और अँधेरे छांटकर रोशन हो जाते कई झरोखे,
मद्धम पीली रौशनी में से झांकते थकी आँखों वाले चेहरे,
इस काल में अपना अस्तित्व खोजते हुए।
" खुले दालानों में चलती साँय-साँय हवा गवाह थी,
देखे थे उसने कई सौ आनंद-नृत्य, कभी स्वागत तिलक तो कभी उठती अर्थियां,
अन्दर बाहर करते योद्धाओं की ललकार, कभी खून की बहती नदियाँ,
उसकी छाती पर रचे स्वाभिमान के जौहर और रूपसियों की निरीह नज़रों की गरमाहट सीली नही थी अभी। "
"मंदिरों के भग्न-अवशेषों में कदम रखते ही,
गूँज उठी घंटियों और रण चंडी को प्रसन्न करते मन्त्रों की आवाज़,
बस कमी थी तो दिए की लौ और धुप से उठते सुगन्धित सुवास की,
महल में वास था, बूँद-बूँद टपकते दूध से अभिषिक्त, बेलपत्री से ढंके सृष्टि के विनाशक महादेव का। "
यथाकाल प्रासाद के द्वारों के पीछे छूटी थीं कई मान्यताएं,
मुझ तक पहुंची थी एक मौन पुकार, एक अदृश्य बढ़ा हाथ,
इस युग में खुदको स्थापित करने कुछ ढूंढता-सा,
बस, उस राजमंदिर की शान्ति और इस कोलाहल के बीच फैला था -
ये अपारगम्य समय।
- अपर्णा
(Photographs courtesy: Ashutosh Rangnekar ) http://aparna-insearchofself.blogspot.in/2013/01/blog-post_7.html
चुप-चाप से अक्सर ऐसा लिख जाती हैं कि, कुछ छाप, ऐसी छाप जाती हैं कि, उसे एक जीवन भर का स्मरण दे जाती हैं मेरी दीजी .. अनंत शुभकामनायें ! यहाँ सुनिए मेरी दीजी को:
" महल में बनी बावड़ी के किनारे बैठी,
पानी पर जमी काई में गुजरी पुश्तों की तसवीरें देख रही थी,
नहीं, शायद समय की परछाईयों में तैरते हुए चेहरों में खुदको ढूँढ रही थी,
और प्रयासरत थी कुछ अनकहा सुनने में।" ..
" कुछ तो था उन दीवारों में जो गा उठीं मेरे एक स्पर्श से,
और खींच ले गयीं मुझे, अपने वैभव काल में,
पत्थरों पर तराशी हर वो कहानी, हर लता पर खिली कली, हर वो बारीक आकृति,
मानो जीवंत हो सुगन्धित हो गयीं मेरी उँगलियों तले। "
दरीचों में फडफडाते कबूतर पलट जाते थे पन्ने इतिहास के,
और अँधेरे छांटकर रोशन हो जाते कई झरोखे,
मद्धम पीली रौशनी में से झांकते थकी आँखों वाले चेहरे,
इस काल में अपना अस्तित्व खोजते हुए।
" खुले दालानों में चलती साँय-साँय हवा गवाह थी,
देखे थे उसने कई सौ आनंद-नृत्य, कभी स्वागत तिलक तो कभी उठती अर्थियां,
अन्दर बाहर करते योद्धाओं की ललकार, कभी खून की बहती नदियाँ,
उसकी छाती पर रचे स्वाभिमान के जौहर और रूपसियों की निरीह नज़रों की गरमाहट सीली नही थी अभी। "
"मंदिरों के भग्न-अवशेषों में कदम रखते ही,
गूँज उठी घंटियों और रण चंडी को प्रसन्न करते मन्त्रों की आवाज़,
बस कमी थी तो दिए की लौ और धुप से उठते सुगन्धित सुवास की,
महल में वास था, बूँद-बूँद टपकते दूध से अभिषिक्त, बेलपत्री से ढंके सृष्टि के विनाशक महादेव का। "
यथाकाल प्रासाद के द्वारों के पीछे छूटी थीं कई मान्यताएं,
मुझ तक पहुंची थी एक मौन पुकार, एक अदृश्य बढ़ा हाथ,
इस युग में खुदको स्थापित करने कुछ ढूंढता-सा,
बस, उस राजमंदिर की शान्ति और इस कोलाहल के बीच फैला था -
ये अपारगम्य समय।
- अपर्णा
(Photographs courtesy: Ashutosh Rangnekar ) http://aparna-insearchofself.blogspot.in/2013/01/blog-post_7.html