Tuesday 9 April 2013

'ऊचाइयां' - श्री नवीन मिश्र जी







मै बहुत ऊँचा
हद से ऊँचा हो गया हूँ
इतनी ऊँचाई से
नज़र आता है
इंसान भुनगा
और इन भुनगो को देख
मै खुश होता रहता हूँ
मेरे एक कदम
रख देने से
भुनगे पिस जाते है
मै कदम कदम
इनको पिसते देखता हूँ
ये चिल्लाते नहीँ
इनकी रगोँ मे खून नहीँ
ये सारे के सारे
मिल कर भी
आवाज नहीँ कर सकते मै अगला कदम
बढ़ाता इनको दबाता
आगे बढ़ता हूँ
कई लाख करोड़
ऊँचाइयोँ तक...


नवीन मिश्र
(3 अप्रैल २०१२)

'सोन चिरैया' - श्री नवीन मिश्र जी




पर्वतो के पार्श्व से
रंगबिरंगी
मणियोँ का गोला लेकर
निकली सोन चिरैया
चहकती बलखाती
देवदारु दलोँ
पर मणिकण
बिखेरती
मंदाकिनी के दुग्ध धवल
वेग को
इन्द्रधनुषी वर्तुलोँ
से सजाती
आगे बढ़ी
फैला कर
दिव्य आलोक पंख
लो छुप गई फिर से
बादलोँ की ओट ..


- नवीन मिश्र
(२५  फ़रवरी २०१२)

पानी मे पत्थर - श्री नवीन मिश्र जी




पानी मे पत्थर
तैराने की आस मेँ
उनपर लिख दिया
राम राम
पर पत्थर तो पत्थर
उन्हो ने वही किया
जो करना था
आस्था को
तोड़ कर, पैठ गये
बहुत गहरे..

पाप और पुण्य
की गठरी भी
डूब गई
पत्थरोँ के साथ..

अभी भी आस है

चाह है उतराने की,
वक्त के पाषाण पटल पर
आस्था की कलम से
लिख दी इबारत
फिर एक बार...


- नवीन मिश्र
(१७ अप्रैल २०१२)

मेरे अपने.... - श्री नवीन मिश्र जी







मेरे अपने....


अपने आप से बाहर
निकल कर हूँ देखता..

है कुछ अजब अलग,
पर अपना है.

इन अपनो मेँ हैँ
दोस्त, दुश्मन, गैर भी

मेरी अपनी दुनिया के
जरूरी हिस्से..

पल भर भी दूर अगर
होते, होती है बेचैनी..

होती है...उलझन..

अगर दुश्मन नहीँ करता
नफरत.

दोस्त नहीँ जुतियाता बात बात मेँ..

गैर नहीँ उठाते सवाल
मेरी छोटी छोटी खुशियोँ पर...


नहीँ! इन अपनो के
बगैर पसरे गा सन्नाटा
जीवन मेँ..

बदल दूंगा अभिषाप
आशीष मेँ..

मै इनके साथ जिऊँ गा...

- नवीन मिश्र

(१७ जून २०१२ )

`गंगा` - श्री नवीन मिश्र जी








`गंगा`

हे!
पतित पावनी
मै जन्मा
तेरे किनारे
वत्सला!
खेल खेल कर
तेरी गोद मेँ
दिन गुजारे,
सपने सँवारे
पाप धोये
कितनी बार
पावन जल मेँ
पर आज मैँ
अपनी कमी को
खोजता हूँ
ये ऋण कैसे उतारूँ
सोचता हूँ
अपने सारे पुण्य
आज लो
तुम्हेँ सौँपता हूँ.


- नवीन मिश्र

(७ जुलाई २०१२) 

`दीवार` - श्री नवीन मिश्र जी









`दीवार`

जुड़ती हूँ ईँट ईँट
तब जोड़ पाती हूँ
तुम्हेँ और
तुम्हारे नाते कुनबे

क्योँ मेरा जोड़ना
नहीँ भाता तुम्हेँ
खीँच देते होँ मुझे
दिलोँ के बीच.

मैँ चारो ओर से
घेर कर देती हूँ
आश्रय.
होकर खड़ी
अहर्निश तुम्हारी
रक्षा मेँ..

तपती दुपहरी
कँपकपाती ठंढ
कड़कती बिजली
बारिश भी सहती हूँ
बचाती रहती हूँ
तुम्हे, बनकर कवच.

तुम टूट टूट
खड़ा करते मुझे
अपनो के बीच

झेलती हूँ दोनो ओर के
पल पल
उफनते कलुष
और बिखरे दर्प,
को

विभाजित दिलोँ के
दरमियाँ
नहीँ रह पाती
मै खुश.

हटा दो मुझे बीच से
तोड़ दो मुझे.

मेरे भी कान होते हैँ
सुना होगा..
तुम्हारे एक होने पर
मै खुशी से
बोलने भी लगूँ गी.
सच...

-नवीन मिश्र

१९ अक्टूबर  २०१२ 


Friday 11 January 2013

'पुकार' by Aparna R Bhagwat

यह हमारी अपर्णा दीदी जी हैं, जिनको हम दीजी के नाम से संबोधित करते हैं .. 
चुप-चाप से अक्सर ऐसा लिख जाती हैं  कि, कुछ छाप,   ऐसी छाप जाती हैं कि,  उसे एक जीवन भर का स्मरण  दे जाती हैं मेरी दीजी .. अनंत शुभकामनायें ! यहाँ सुनिए मेरी दीजी को:


" महल में बनी बावड़ी के किनारे बैठी,
पानी पर जमी काई में गुजरी पुश्तों की तसवीरें देख रही थी,
नहीं, शायद समय की परछाईयों में तैरते हुए चेहरों में खुदको ढूँढ रही थी,
और प्रयासरत थी कुछ अनकहा सुनने में।" ..


" कुछ तो था उन दीवारों में जो गा उठीं मेरे एक स्पर्श से,

और खींच ले गयीं मुझे, अपने वैभव काल में,
पत्थरों पर तराशी हर वो कहानी, हर लता पर खिली कली, हर वो बारीक आकृति,
मानो जीवंत हो सुगन्धित हो गयीं मेरी उँगलियों तले। "




दरीचों में फडफडाते कबूतर पलट जाते थे पन्ने इतिहास के,
और अँधेरे छांटकर रोशन हो जाते कई झरोखे,
मद्धम पीली रौशनी में से झांकते थकी आँखों वाले चेहरे,
इस काल में अपना अस्तित्व खोजते हुए।






" खुले दालानों  में चलती साँय-साँय हवा गवाह थी,
देखे थे उसने कई सौ आनंद-नृत्य, कभी स्वागत तिलक तो कभी उठती अर्थियां,
अन्दर बाहर करते योद्धाओं की ललकार, कभी खून की बहती नदियाँ,
उसकी छाती पर रचे स्वाभिमान के जौहर और रूपसियों की निरीह नज़रों की गरमाहट सीली नही थी अभी। "




"मंदिरों के भग्न-अवशेषों में कदम रखते ही,
गूँज उठी घंटियों और रण चंडी को प्रसन्न करते मन्त्रों की आवाज़,
बस कमी थी तो दिए की लौ और धुप से उठते सुगन्धित सुवास की,
महल में वास था, बूँद-बूँद टपकते दूध से अभिषिक्त, बेलपत्री से ढंके सृष्टि के विनाशक महादेव का। "



यथाकाल प्रासाद के द्वारों के पीछे छूटी थीं कई मान्यताएं,
मुझ तक पहुंची थी एक मौन पुकार, एक अदृश्य बढ़ा हाथ,
 इस युग में खुदको स्थापित करने कुछ ढूंढता-सा,
बस, उस राजमंदिर की शान्ति और इस कोलाहल के बीच फैला था -
                                              ये अपारगम्य समय।


- अपर्णा


(Photographs courtesy: Ashutosh Rangnekar ) http://aparna-insearchofself.blogspot.in/2013/01/blog-post_7.html