`गंगा` - श्री नवीन मिश्र जी
`गंगा`
हे!
पतित पावनी
मै जन्मा तेरे किनारे
वत्सला!
खेल खेल कर
तेरी गोद मेँ
दिन गुजारे,
सपने सँवारे
पाप धोये
कितनी बार
पावन जल मेँ
पर आज मैँ
अपनी कमी को
खोजता हूँ
ये ऋण कैसे उतारूँ
सोचता हूँ
अपने सारे पुण्य
आज लो
तुम्हेँ सौँपता हूँ.
- नवीन मिश्र
(७ जुलाई २०१२)
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